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जून, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

परवरिश

                मैं राह ही देख रही थी कि पौने दस के करीब डोरबेल बजी..... मेरा अनुमान सही था,वो दुर्गा ही थी। मैंने देर से आने का कारण पुछा तो वही रोज की वजह.......माँ-बाप का झगड़ा और गंदी परवरिश से पिसते बच्चें।                      दुर्गा........ सोलह सत्रह साल की गोरी जवान और खुबसूरत सी लड़की, जो पिछले कुछ दिनों से मेरे घर काम करने आ रही थी। छ: बहन भाईयों में दुर्गा दुसरे नम्बर पर थी,पहले नम्बर पर एक आवारा भाई था जो तकरीबन पूरी तरह से बिगड़ चुका था। तीसरे नम्बर की बहन का नाम शारदा था जो की सातवीं कक्षा में पढ़ती थी, चौथे नम्बर का भाई छठी में था और दो छोटी बहनें जो अभी स्कुल नहीं जाती थी।            एक बार दुर्गाष्टमी के दिन मैंने उसकी दोनो छोटी बहनों को खाने पर बुलाया था,वो दोनो इतनी सुंदर बच्चियाँ थी कि मैं मंत्र मुग्ध सी हो गयी....... भगवान ने चारों बहनों को रूप रंग देने में कोई कोर कसर ना रखी थी।  दुर्गा ने दसवीं तक पढ़ाई की थी और अक्सर मुझसे कहती थी कि,             "दीदी,मुझे आगे पढ़ना है, लेकिन मेरा बाप मुझे बीयर बार में काम करने को बोलता हैं।"    मैं सकते में आ

हाँ,मैं रजस्वला हूँ

मैं वर्जित हूँ क्योकि मैं रजस्वला हूँ यूँ तो मै घर की धुरी हूँ लेकिन  'उन दिनों' मैं घर से ही वंचित हूँ वर्जनाओं  के ताने बाने से बुने उन दिनों में  मैं सहमी सी रहती हूँ लेकिन कभी कभी वर्जनाओं से पार  जाकर भी देखा हैं मैंने अचार कभी भी ख़राब नहीं हुआ यक़ीन मानिये मैंने हाथ लगाकर देखा हैं मुझे याद हैं वो शुरुआत के दिन जब नासमझी में मैंने मंदिर में प्रवेश कर लिया था यक़ीन मानिये  भगवान बिल्कुल भी रूष्ट नहीं हुए थे हाँ, घर के रूष्ट लोगो ने वर्जनाएँ लाद दी थी मुझ पर तब से लेकर आज तक 'उन दिनों' वर्जित हूँ मैं हर जगह किसने बनाया ये नियम ? शायद पुरूषवाद ने ! लेकिन  सुनो पुरूषवाद ग़र तुम रजस्वला होते तो क्या वर्जित रहते ?  क़तई नहीं ! तुम कहते कि हम पवित्र है क्योकि हम प्रत्येक माह शुद्धीकरण की प्रक्रिया  से जो गुज़रते हैं 

पिता

पिता सिर्फ पिता होते हैं एक समय में एक ही किरदार होते हैं वे पूरी तरह से सिर्फ पिता होते हैं वे पिघल के बरसते नहीं हैं बहुत कुछ सहते हैं लेकिन  कभी कुछ भी  कहते नहीं हैं पिता सिर्फ पिता होते हैं उन्हे लोरी नहीं आती सुलाने को लेकिन बातें सार्थक आती हैं आँखें खोल दुनियाँ दिखाने को माँ मारती हैं धरती को जब ठोकर खाकर गिर जाते हैं लेकिन  पिता.... ठोकर खाकर सँभलना सीखाते हैं वे मौन रहते हैं हमारे सपने सजाते हैं आँखों में अपनी भविष्य हमारा  बुनते हैं पिता  सिर्फ पिता होते हैं जीवन भर एक ही किरदार में होते हैं लेकिन  जब हाथ छोड़  चली जाती हैं 'माँ' तो  ये पिता माँ भी बन जाते हैं 

कौसानी

घुमावदार रास्तें स्वागत करते लम्बें पेड़ अपनी ओर बुलाते पहाड़ लगातार बोलते झिंगुर चहचहाते पक्षी क्या कोई इसका सानी हैं जी हाँ, शहर ये कौसानी है  दूर से छुप छुप लुभाता हिम गरजते बादल कड़कती बिजली  जम के बरसने को आतुर  मौसम ये रोमानी हैं  जी हाँ, शहर ये कौसानी हैं शांत,नीरव, मनभावन हवा में कैसा जादू हैं भीगे मन,भीगे तन पत्ते पत्ते में संगीत हैं सुबह है सुंदर तो रैना भी दीवानी हैं जी हाँ, शहर ये कौसानी हैं अलसुबह की किरणें हिम पे जा गिरती भुला देती सुध बुध लेकिन  उड़ते आवारा ये बादल ढ़क देते इसकी सुनहरी छँटा  ये बात कितनी बेमानी हैं जी हाँ, शहर ये कौसानी हैं।

चिढ़ते रहो

तुम चिढ़ते हो मुझसे  या  मेरे वजूद से.....नहीं पता लेकिन जब भी मैं  कुछ नया करती हूँ तुम्हारा अहम चोट खाता हैं मैंने महसूस किया हैं तुम्हारी जलन को तुम्हारी प्रतिद्वन्दता को तुम्हारी बेवजह की तर्कशक्ति को हाँ..... ये सच हैं कि तुम कहते कुछ नहीं लेकिन  घुमा फिरा कर आग ही तो उगलते हो जानते हो तुम ? उस आग में  झुलस जाती हूँ मैं और फिर... अपने फंफोलों को सहलाते सहलाते मैं फिर कुछ रच देती हूँ और पुन:  तुम जैसे लोग  मेरी अच्छी 'क़िस्मत' पर बधाईयाँ देने पहुँच जाते हैं और मैं..... मुस्कुरा देती हूँ..... उन फंफोलों को देखकर  जो शायद तुमने नहीं देखे मैंने सहयोग नहीं माँगा संदेह नहीं तुमने कभी दिया भी नहीं  मैंने हमेशा तुम्हारा हौसला बढ़ाया लेकिन.... तुमने मुझे कभी सराहा नहीं और  यही सराहने की चाहत मेरे वजूद को ठोस करती गयी इसलिये..... मुझे  मन ही मन  ना चाहने वालों शुक्रिया तुम सभी का क्योकि  ये तुम्हारी चिढ़ ही हैं जो रंग ला रही हैं  #चिढ़ते_रहो