तुम चाहते क्या हो ? मैं हमेशा खुश रहूँ ? या खुश दिखूँ तुम ही बताओ जब अंदर पतझर हैं तो बाहर बसंत कैसे बिखेरू मैं ? बरसना चाहती हैं आँखें घुट जाता है गला मेरा तो अपनी सिसकियों को क्यो अंदर ही अंदर समाहित करू मैं ? जब उदास हैं मन बैचैन हैं किसी अपने की याद में तो क्यो तुम्हारे साथ बैठकर ठहाके लगाऊ मैं ? माना कि तुम मेरा ध्यान रखते हो बस, यही गड़बड़ हैं क्योकि मेरी परवाह तुम्हारे दायरों तक सीमित हैं मुझे अपना ध्यान खुद रखने दो ना मैं खुश रहुंगी बस, अपने मन की करने दो ना
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है